आज पूरा देश 153 वीं गाँधी जयंती बड़े ही धूम धाम से मानाने मशगूल हैं। देश के स्वतान्त्रता संग्राम में कभी प्रेरणा देने वाली खादी अब भले ही नए कलेवरो मे आकर बड़े नेताओं के लिए सिर्फ राजनीति की ख़ास और मंहगी पोशाक बन गई हो लेकिन खादी के द्वारा गांधी की परम्परा को जीवित बनाए रखने की जद्दोजहाद में लगे खादी व्यवसाय से जुड़े कामगारों की बेहद दयनीय हालत पर ना गांधी वादियों की नजर है। और ना ही खादी की पोशाक पहन अपनी पहचान बनाने वाले राजनीतिज्ञों को हम बात कर रहे है गांधी जयन्ती पर गांधी के नाम पर खादी निर्माण में जुटे उन कामगारों की जो आज भी दिहाड़ी मजदूरों से भी कम मजदूरी पर मुफलिसी की ज़िंदगी बसर करने को मजबूर हैं।
गाँधी जी ने चरखा चलाया कि देश से गरीबी मिटाई जा सके लेकिन आज इंसान सरकार की मनमानी रवैये के चलते जीएसटी जैसे कर के बोझ तले दबता नज़र आ रहा जबकि देश की पहचान बने खादी ग्राम उद्द्योग बुनयादी तौर पर कर मुक्त होना चाहिए वही खादी ग्राम उद्योग की ज़िम्मेदारी अपने कंधो पर संभालने वालो पर भी जीएसटी. का दर्द दिखाई दिया उनका कहना है की खादी को तो ब्रिटिश हुकूमत में भी कर मुकत रखा गया था।
मौजूदा सरकार ने खादी पर कर का जो बोझ लाद दिया इससे लोगो का रुझान खादी के प्रति काम हुआ है। वही सूत कताई काम में लगी महिलाये आधुनिक चरखा मशीन पर काम करने के बावजूद अपने परिवार का जीवन यापन किसी तरह कर रही है मनरेगा से भी कम मजदूरी मिलने के बाद भी गाँधी जी के चरखे को चला कर सूत कताई के काम से खुश है। 1966 में खादी ग्राम उधोग की स्थापना के बाद खादी कपडे में मांग के अनुसार सुधार होता गया वैसे चरखा मशीन का स्वरूप भी बदलता गया मगर जिले में बहोत सी महिलाए आज भी सूत कताई का काम कर रही है।